क्या बतौर नेता चिराग को स्थापित करने के लिए अलग हुई लोजपा, उनके सामने 2005 के बाद विस चुनाव में पार्टी के गिरते ग्राफ को थामने की चुनौती - Dainik Darpan

Hot

Post Top Ad

Sunday, October 4, 2020

क्या बतौर नेता चिराग को स्थापित करने के लिए अलग हुई लोजपा, उनके सामने 2005 के बाद विस चुनाव में पार्टी के गिरते ग्राफ को थामने की चुनौती

(गुंजेश) लोजपा के अकेले लड़ने के कई मायने हैं। रामविलास पासवान की गैरमौजूदगी में यह पहला मौका है जो साबित करेगा कि पिता की तरह ही पुत्र की भी पार्टी के आधार वोटों पर पकड़ है। साल भर भी नहीं हुए होंगे जब पासवान ने पार्टी की कमान चिराग के हाथों सौंपी। चिराग गठजोड़ में लड़ते तो संभवत: बतौर नेता, चुनावी जमीन पर अपनी हैसियत आंकने में वह कामयाब नहीं होते। 2005 के बाद पार्टी का वोट लगातार खिसक भी रहा था। चुनौती इसे वापस पाने की भी है।

लेकिन इस दांव में खतरे भी हैं। जैसा 2005 में हुआ था। तब फरवरी में अपने दम 29 सीटें जीतने वाली लोजपा अक्टूबर के चुनाव में 10 सीटों पर खिसक गई थी। चिराग को सावधान रहना होगा कि ऐसी नौबत नहीं आए। वैसे, विधानसभा चुनाव में चिराग के पास खोने के लिए कुछ नहीं है। पार्टी के 2 ही विधायक हैं। चिराग यह संख्या बढ़ा ले गए,वोट % बढ़ा ले गए तो उनका सिक्का चल जाएगा। वोट 4.83% नीचे खिसका तो चाल उल्टी पड़ जाएगी।

रही बात लोजपा के संस्थापक राम विलास पासवान की तो वह राजनीति को संभावनाओं का खेल मानते रहे हैं। 2005 फरवरी में हुए विधानसभा के चुनाव में उन्हें 29 सीटें मिली थीं। लोजपा 178 सीटों पर लड़ी थी। तब पासवान किंगमेकर की संभावना को अवसर में नहीं बदल पाए। 2005 अक्टूबर में दोबारा चुनाव हुआ। लोजपा ने 203 प्रत्याशी उतारे थे। विधायकों की संख्या 10 पर आ गई।

यह चुनाव पूर्व हुए भाजपा और जदयू के बीच हुए गठबंधन का प्रतिफल था। रामविलास की चुनावी समझ 2010 में भी गलत हो गई। इस बार लोजपा 75 में 64 सीटों पर दूसरे नंबर पर रही। रामविलास पासवान के शब्दों में कहें तो लोजपा में मतदाता को संभावना तो दिखी लेकिन जनता ने उसे अवसर नहीं दिया।

अग्निपथ पर चिराग

नई दिल्ली में लोजपा संसदीय दल की बैठक और पार्टी के अलग चुनाव लड़ने का फैसला सार्वजनिक हो जाने के बाद बाहर निकले चिराग पासवान। अब चिराग जिस रास्ते बढ़ चुके हैं वह अग्निपथ से कम नहीं।

लोजपा को कमतर आंकना ठीक नहीं,100% वोट शिफ्ट करा सकती है

विधानसभा में न के बराबर सदस्य संख्या के बावजूद लोजपा की ताकत को माइनस नहीं किया जा सकता। पार्टी की पासवान वोटरों पर मजबूत पकड़ है। सीएसडीएस के सर्वे में यह प्रमाणित भी हुआ है। पार्टी अपना वोट शिफ्ट कराने की ताकत रखती है। 2005 में जब लोजपा अकेले लड़ी तो बड़ी संख्या में पासवान वोट उसे मिला। 2010 में उसने राजद से गठजोड़ किया जो गठबंधन को 57% पासवान वोट मिले। जब 2015 में एनडीए का हिस्सा बनी तो 51% वोट वहां लेती गई।

लोजपा का वोट शेयर और सीटें तभी बढ़ीं जब अकेले चुनाव लड़ी

2014 लोकसभा चुनाव में लोजपा ने एक बार फिर गठबंधन बदला। 2015 में एनडीए के घटक दल के रूप में लोजपा ने 42 सीटों पर दावेदारी पेश की। 4.83 प्रतिशत वोट शेयर के साथ पार्टी को महज 2 सीटों पर सफलता मिल पाई। हालांकि 42 में से 36 यानी लगभग 85 प्रतिशत सीटों पर लोजपा दूसरे नंबर पर रही। चुनाव के आंकड़े बताते हैं कि सिर्फ एक चुनाव को छोड़ कर लोजपा अभी तक संभावना को अवसर में बदलने में सफल नहीं हो पायी है। गठबंधन चाहे किसी के साथ रहा हो उसका वोट शेयर लगातार कम होता गया। लोजपा को सबसे ज्यादा वोट और सीट तभी मिले जब वह अकेले चुनाव मैदान में उतरी। लगता है चिराग ने अकेले लड़ने दावं इसीलिए खेला है।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Did LJP break away to establish Chirag as a leader, in front of him the challenge to hold the party's declining graph in the post-2005 election


from Dainik Bhaskar https://ift.tt/3njlS9m

No comments:

Post a Comment

Post Top Ad