
विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) प्रमुख मुकेश सहनी का सीट बंटवारे के मौके पर महागठबंधन से अलग होना वोटों के गणित को कुछ न कुछ तो प्रभावित करेगा ही। सटीक आकलन इसलिए नहीं किया जा सकता क्योंकि चुनावी जमीन पर सहनी की पकड़ की मुकम्मल परीक्षा अभी होनी बाकी है।
सहनी राज्य के राजनीतिक क्षितिज पर 2014 के लोकसभा चुनाव में उभरे। बाद में पार्टी बनाई। 2019 का लोकसभा चुनाव महागठबंधन के तहत उनकी पार्टी लड़ी। सहनी खुद खगड़िया लोकसभा क्षेत्र से लड़े और हार गए। सिमरी-बख्तियारपुर उप चुनाव को छोड़कर उनकी पार्टी कभी अकेले चुनाव नहीं लड़ी।
इस उपचुनाव में वीआईपी के दिनेश निषाद तीसरे स्थान पर थे जिन्हें 25,225 वोट मिले और तीसरे स्थान पर रहे। लोकसभा चुनाव में मुकेश सहनी खगड़िया संसदीय सीट के हसनपुर, सिमरी-बख्तियारपुर, अलौली, खगड़िया, बेलदौर और परबत्ता में सभी जगह 40 हजार से अधिक वोटों से पिछड़ गए थे। उनकी पार्टी मुजफ्फरपुर और मधुबनी में भी कुछ खास नहीं कर पाई। सिमरी-बख्तियारपुर में मुकेश सहनी को लोकसभा में जितने वोट मिले थे, उसका आधा वोट ही उनके प्रत्याशी को उप चुनाव में मिले।
लोकसभा चुनाव में वीआईपी जिन सीटों पर लड़ी वहां मुकेश सहनी की जाति के ठीक-ठाक वोट हैं। लेकिन उनकी जमात ने मुजफ्फरपुर में वीआईपी से अधिक तवज्जो अजय निषाद को दी। मधुबनी में भी कोई खास करामात उनकी पार्टी नहीं कर सकी।
लोकसभा चुनाव में वीआईपी को 1.65% वोट मिले। यह 18 विधानसभा क्षेत्रों का ही हिसाब है। लेकिन वोट के मामले में अति-पिछड़ी गिनी जाने वाले और कई जातियों-उपजातियों में विभक्त निषाद समुदाय में कई क्षेत्रों में असरदार हैसियत रहता है। खासकर उत्तर बिहार में मुजफ्फरपुर से लेकर भागलपुर तक जहां नदियों का जाल है।
पिछड़ी जातियों का बड़ा समूह ही बनता है निर्णायक
बिहार में पिछड़ी जातियों की आबादी 51.3% है। इसमें 19.3% पिछड़ी जातियों को निकाल दें तो बची हुई अति पिछड़ी जाति की 32% आबादी में धानुक, कहार, कानू, कुम्हार, नाई, ततमा जैसी जातियों की संख्या करीब 16% है और बची 16% में वैसी जातियां है जिनकी संख्या 1% या उससे कम है। ये जातियां ही मिलकर बड़ा वोट समूह रचती हैं, इन्हें ही कभी ‘चुनावी जिन्न’ कहा जाता है। इनकी ही चाल नतीजों को मोड़ती, तोड़ती और गढ़ती रहती है।
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